गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

दो कविताएं

बू

जिस तरह बाढ़ के उतरते पानी के बाद
नदियों के किनारे अधगले शव
सड़ांध मारते हैं
कुछ इस तरह कि.'बू' कल रात जगा गई
मुझे महसूस हुआ मेरे नथुनों में बासी हवा भर गई है
उतनी ही बदबूदार जितनी
बिना अंत्येष्ठि के बास मारती कोई सापतहिक्ॐॐॐ लाश
मैं बेचैन होने लगा
और मेरी जिज्ञासु बुद्धि महक के कारणों की
टोह लेने के लिए तड़पने लगी
तभी ताक पर रखे संविधान के विधान की
ओर मेरी नजर टिक गई
जिसे पिछले साठ वर्षों से सौ बार से ज्यादा
सर्जरी की जरूरत पड़ चुकी है
क्योंकि इसकी धाराएँ यमुना के पानी की तरह
बदबूदार तो हैं ही
और इसके शब्द परिभाषाओं के अभाव में
दम तोड़ रहे थे? शायद 'बू' का एक कारण ये भी था
लेकिन दूषित हवा बढ़ती गई
प्रश्न गहराता गया, नींद टिमटिमाती गई
इसलिए मैंने उत्तर पाने की एक और कोशिश की
क्योंकि मेरी खोपड़ी के भीतर पड़ा हुआ दिमाग
खाली रेगिस्तान तालाब भर नहीं था
जरूर कुछ था कुछ ऐसा
जिसके लिए मैं अरूणाँचल से
कच्छ के रण तक खूब भटका
मुझे हर तरफ चीख पुकार मचती सुनाई दी
कहीं सांप्रदायिकता की आग में
पुरुष का निचला हिस्सा झुलसा मिला
तो कहीं उंमादित सांड उसी माँद पर
झपट्टा मारने को तैयार दिखे
जिस पर मक्खियाँ भिन-भिना रहीं थीं
लेकिन इस बार भी मैं संतुष्ट नहीं था
इसलिए मैंने एक और नजर दौड़ाई
अस्पताल के अहातों में बच्चों की जातों में
मुझे भ्रुजों का एक एकदम ताजा गोदाम मिला
कुछ अजन्मी बच्चियों के जिस्म
जिसे किसी माँ ने खराब अंग की तरह
काटकर फएंक दिया था
फिर भी न जाने क्यों मुझे
किसी डॉक्टर के मरे जमीर पर पड़े
एप्रन की गंध नहीं आई
मेरा जी मितलाने लगा और मुझे
वॉमेटिंग की आशंका हुई
क्योंकि मेरा दिल यह मानने को नहीं था तैयार
कि इन छोटी-छोटी बातों से
खुली है मेरी नींद
मैंने एक और कोशिश की
तो मुझे नवीं मुम्बई में कुछ नये लोग मिले
सिंगूर नंदीग्राम और दादरी में
हिंदुस्तान के सबसे बड़े रोग मिले
मतलब भूख-गरीबी और बेबसी
फिर भी मेरा ज्ञान अधूरा था और
भोर का तारा आसमान में पूरा था
आँखें किसी शून्य में टिकी खोज रहीं थी
कुछ और ही.
तभी ललाती भोर में एक झंडा मिला
जिसका डंडा आदमी की पसलियों पर टिका हुआ था.
और आदमी की बाँहें आसमान को समेटने की हसरत में उठी
धीरे-धीरे ग्रि रही थी जमीन पर
अब मुझे धीरे-धीरे उस 'बू' का रहस्य समझ में आ रहा था
कि आसमान में उछलने वाली हर मुट्ठी में न ही होता बारूद
जिससे दुनिया बदल जाए मिट जाए अंधेरा अरे!
हाथ की लकीरों में सड़ता हुआ भविष्य होता है
जहाँ कुछ नहीं होता सिवाय बू के.

मेरा समय

मेरा जन्म
झूठ, फरेब, द्वेष, ईर्ष्या के
उस जंगल में हुआ
जहाँ भेड़ियों की हुकूमत चलती थी
जहाँ दो सियार श्मशान की
अधजली लाश पर झपट पड़ते थे
और नोच-नोच कर ले जाते थे
गरम-गरम गोश्त अपनी दुर्भिक्षा को
शांत करने के लिए
और कभी जब इनका पेट नहीं भरता
तो मुंह मारा फिरते थे
जंघाओं के कपाट में बंद चूल्हे में
कभी कब्रिस्तान में रोते हुए मिलते
पढ़ते हुए फातिहा अपनी ही कब्र पर
दो लठैतों के संग करते हुए बँटवारा
उन्हीं ताबूतों का
जिनमें वे वर्षों पहले दफनाए गए थे
और सुबह अधसड़ी लाश
मरी घर के पिछवाड़े
पड़ी हुई महकती
जिसे देख पूरा मुहल्ला फुसफुसाकर
सो जाता था जानवरों के संग
वैसी ही नींद में, जैसे कोई मुर्दा
किसी अस्पताल के स्ट्रेचर पर.
मैं रोज पढ़ता था
अखबार की सबसे उत्तेजक खबर
लेकिन मेरा पौरुष भी
अंतिम पन्ने की लहराती उसी संगीन
दुनिया में सिमट जाता था
जहाँ सदी का महानायक
हाजमोला बेचा करता था,
मुझे रोज सुनाई देता था
जंगल का लाउड स्पीकर
जिससे आवाज आती थी
हर-हर महादेव, अल्लह-हो-अकबर की
फिर शाम होते ही दफना दिए जाते कुछ हिंदू
जला दिए जाते थे कुछ मुस्लिम
और फिर सड़क वीरान हो जाती थी
उन चित्तकबरों की आहट पाते ही
जो अपनी जंग लगी बंदूक लिए
उधर ही जाते थे जहाँ साफ-साफ
मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा होता था
ॐॐॐॐॐॐॐॐ. तौल दवजंससवूमक ईमतमण
हर शाम को शोक सभाएँ होती
और रेडियो पर अपील करता
एक औधड़ शांति का
जैसे श्मशान में चिता पर बैठ
कर रहा हो कोई साधना सिद्धि की
उनकी साधना सफल भी होती थी
क्योंकि छोटे-मोटे जीव-जंतु
बड़े-बड़े जानवरों को सौंप देते थे
पंचवर्षीय योजनाओं के साथ-साथ अपने सपने.
मेरा जन्म
इतिहास के उसी कपाट में हुआ
जहाँ जिंदा मुर्दे थे और मुर्दे जिंदा
जहाँ अयोध्या से गोधरा तक
आदमी की लाश पर भगवा लहराता था
भागलपुर, पंजाब, कश्मीर के बीच
मैं रोज मरता था जीता था
जहाँ जहानाबाद और गोहाना में
'गो' की तरह रोते जाते थे कुछ सिरफिरे
जिन्हें हुकूमत से बगावत
करने की छूट नहीं थी.
जहाँ जंगल के बीचोंबीच बना चिड़ियाघर
घायल आजादी के किले पर
लहराता झुका तिरंगा
रोज ही शोक दिवस मनाता था
मुम्बई की लोकल ट्रेनें
क्षत-विक्षत शव लिए
उसी रफ्तार में चलती थी
जैसे स्टॉक एक्सचेंज के सेंसेक्स में
वर्षों पहले जमा कर दी गई थी कुछ खोपड़ियाँ
जिनसे जंगल के जानवर
फुटबाल का खेल खेला करते थे
और हुकूमत आई. एस. आई मार्का लगा
अपनी ही जीत में चौधियाई फिरती थी.
मेरा जन्म
विश्वविद्यालय के ऐसे खंडहरों में हुआ
जहाँ अपनी जमीन के लिए लड़ने वाला
नक्सली कहलाता था
(क्या जल-जंगल जमीन का हक माँगने वाला नक्सली होता है?)
और बावजूद इसके नक्सली लड़ाई के
आंध्रा से पंजाब तक किसानों की गर्दनें
बैंकों के दरवाजों पर
नींबू मिर्च की माफिक लटकी रहती
फिर शनी शांत नहीं होता था.
जहाँ छात्रों पर लाठियाँ बरसाई जातीं
और शिक्षक हार्ट-अटैक से मार दिये जाते
जहाँ स्त्री मुक्ति की हवा बंद कमरों में गूँजती
और सुबह ब्रेक-फास्ट की टेबल पर कहती खबर
सामुहिक बलात्कार की शिकार युवती पुलिस स्टेशन में
जाँच जारी!
जहाँ अंधा कानून तारीख-पर-तारीख देते-देते
खुद ही तारीख हो चुका था
और पुलिस स्टेशन के भीतर टंगी
मुसकुराती तस्वीर गांधी की
जैसे अब भी कहती थी
शांति ओम शांति.

3 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय manoj kumar जी
    आपकी रचनात्मकता चरम सोपान को छु रही है ...निसंदेह आप अच्छा लिखते हैं ...इन सार्थक कविताओं के साथ ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है ...आशा है आप अपनी लेखनी से ब्लॉग जगत को समृद्ध करेंगे ..यही शुभकामना है ...शुक्रिया

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  2. आपको पढकर बहुत अच्‍छा लगा .. इस नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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  3. शानदार पेशकश।

    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
    सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित हिंदी पाक्षिक)एवं
    राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
    0141-2222225 (सायं 7 सम 8 बजे)
    098285-02666

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